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क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए | शाही शायरी
qalb-o-jigar ke dagh farozan kiye hue

ग़ज़ल

क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए

रज़ी रज़ीउद्दीन

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क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
हैं हम भी एहतिमाम-ए-बहाराँ किए हुए

दीवाना-ए-ख़िरद हो कि मजनून-ए-इश्क़ हो
रहना है उस को चाक-गरेबाँ किए हुए

पर्दे में शब के हम ने छुपाए हैं दिल के ज़ख़्म
इक तीरगी है दर्द का दरमाँ किए हुए

दिल का अजीब हाल है बे-इख़्तियार है
यादों की मेज़बानी का सामाँ किए हुए

राज़-ए-हयात किस को बताएँ कि हर कोई
है ज़िंदगी को मौत का उनवाँ किए हुए

भटका रहा है दिल को किसी शख़्स का ख़याल
दिल को उसी की याद परेशाँ किए हुए

क्या हो रहा है दिल पे असर उन का क्या कहें
जल्वे जो हैं निगाह को हैराँ किए हुए