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अब भी उसी तरह से इसे इंतिज़ार है | शाही शायरी
ab bhi usi tarah se ise intizar hai

ग़ज़ल

अब भी उसी तरह से इसे इंतिज़ार है

रज़ी रज़ीउद्दीन

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अब भी उसी तरह से इसे इंतिज़ार है
अब भी किसी ख़याल से दिल बे-क़रार है

आती ख़िज़ाँ में बिखरे हैं मुरझाए चंद फूल
उजड़ा हुआ चमन है ये जाती बहार है

यूँ दिल पे ले लिया है कि तन का न होश है
और तन पे जो क़बा है तो वो तार-तार है

आहट हो कोई उस की तरफ़ दौड़े जाते हैं
ताख़ीर एक पल की भी अब दिल पे बार है

दिल को जलाए रक्खा है हम ने चराग़ सा
इस घर में हम हैं और तिरा इंतिज़ार है