दिन जुदाई का दिया वस्ल की शब के बदले
लेने थे ऐ फ़लक-ए-पीर ये कब के बदले
मेला राम वफ़ा
गो क़यामत से पेशतर न हुई
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
मेला राम वफ़ा
इक बार उस ने मुझ को देखा था मुस्कुरा कर
इतनी तो है हक़ीक़त बाक़ी कहानियाँ हैं
मेला राम वफ़ा
इतनी तौहीन न कर मेरी बला-नोशी की
साक़िया मुझ को न दे माप के पैमाने से
मेला राम वफ़ा
कहना ही मिरा क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
ये भी तुम्हें धोका है कि मैं कुछ नहीं कहता
मेला राम वफ़ा
रातें ऐश-ओ-इशरत की दिन दुख दर्द मुसीबत के
आती आती आती हैं जाते जाते जाते हैं
मेला राम वफ़ा
तुम भी करोगे जब्र शब ओ रोज़ इस क़दर
हम भी करेंगे सब्र मगर इख़्तियार तक
मेला राम वफ़ा