क्या कहें वादों पे यक़ीं हम क्यूँ लाते जाते हैं
धोका खाना पड़ता है धोका खाते जाते हैं
ताक़त-ए-ज़ब्त-ए-ग़म दिल से रुख़्सत होती जाती है
अरमाँ नाले बन बन कर लब पर आते जाते हैं
रातें ऐश-ओ-इशरत की दिन दुख दर्द मुसीबत के
आती आती आती हैं जाते जाते जाते हैं
आँधियों और बगूलों से कम नहीं तेरे दीवाने
ख़ाक उड़ाते आते हैं ख़ाक उड़ाते जाते हैं
आज सहर से ग़ैर बहुत हाल तिरे बीमार का है
अफ़्सुर्दा अफ़्सुर्दा है लोग जो आते जाते हैं
मय-ख़ाना भी पड़ता है शैख़ को राह-ए-मस्जिद में
मय-ख़ाना भी आप अक्सर आते जाते जाते हैं
ग़ैर तो हैं फिर ग़ैर 'वफ़ा' ग़ैरों का शिकवा ही किया
बद-हाली में अपने भी आँख चुराते जाते हैं
ग़ज़ल
क्या कहें वादों पे यक़ीं हम क्यूँ लाते जाते हैं
मेला राम वफ़ा