जी पर भी हम ने जब्र किया इख़्तियार तक
जीते रहे अख़ीर दम-ए-इंतिज़ार तक
किस को नसीब होते हैं फिर जल्सा-हा-ए-मय
जीता है कौन देखिए अगली बहार तक
उफ़-रे सितम कि बहर-ए-दुआ-ए-विसाल-ए-ग़ैर
वो पाँव चल के आए हैं मेरे मज़ार तक
तुम भी करोगे जब्र शब ओ रोज़ इस क़दर
हम भी करेंगे सब्र मगर इख़्तियार तक
शाकी नहीं मैं नख़वत-ए-गुल ही का ऐ 'वफ़ा'
मुझ से चमन में नोक की लेते हैं ख़ार तक
ग़ज़ल
जी पर भी हम ने जब्र किया इख़्तियार तक
मेला राम वफ़ा