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गो क़यामत से पेशतर न हुई | शाही शायरी
go qayamat se peshtar na hui

ग़ज़ल

गो क़यामत से पेशतर न हुई

मेला राम वफ़ा

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गो क़यामत से पेशतर न हुई
तुम न आए तो क्या सहर न हुई

आ गई नींद सुनने वालों को
दास्ताँ ग़म की मुख़्तसर न हुई

ख़ून कितने सितम-कशों का हुआ
आँख उस संग-दिल की तर न हुई

उस ने सुन कर भी अन-सुनी कर दी
मौत भी मेरी मो'तबर न हुई

साथ तक़दीर ने कभी न दिया
कोई तदबीर कारगर न हुई

चैन की जुस्तुजू रही दिन-रात
ज़िंदगी चैन से बसर न हुई

मुझ को मिलती न ऐ 'वफ़ा' मंज़िल
अक़्ल क़िस्मत से राहबर न हुई