औने-पौने ग़ज़लें बेचीं नज़्मों का व्यापार किया
देखो हम ने पेट की ख़ातिर क्या क्या कारोबार किया
महमूद शाम
बस एक अपने ही क़दमों की चाप सुनता हूँ
मैं कौन हूँ कि भरे शहर में भी तन्हा हूँ
महमूद शाम
चाँदनी शब तू जिस को ढूँडने आई है
ये कमरा वो शख़्स तो कब का छोड़ गया
महमूद शाम
एक जंगल जिस में इंसाँ को दरिंदों से है ख़ौफ़
एक जंगल जिस में इंसाँ ख़ुद से ही सहमा हुआ
महमूद शाम
कितने चेहरे कितनी शक्लें फिर भी तन्हाई वही
कौन ले आया मुझे इन आईनों के दरमियाँ
महमूद शाम
उस को देखा तो ये महसूस हुआ
हम बहुत दूर थे ख़ुद से पहले
महमूद शाम
ये और बात कि चाहत के ज़ख़्म गहरे हैं
तुझे भुलाने की कोशिश तो वर्ना की है बहुत
महमूद शाम