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बस एक अपने ही क़दमों की चाप सुनता हूँ | शाही शायरी
bas ek apne hi qadmon ki chap sunta hun

ग़ज़ल

बस एक अपने ही क़दमों की चाप सुनता हूँ

महमूद शाम

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बस एक अपने ही क़दमों की चाप सुनता हूँ
मैं कौन हूँ कि भरे शहर में भी तन्हा हूँ

जहाँ मैं जिस्म था तू ने वहाँ तो साथ दिया
वहाँ भी आ कि जहाँ मैं तमाम साया हूँ

वो एक मोड़ भी इस रह पे आएगा कि जहाँ
मिला के हाथ तू बोलेगा मैं तो चलता हूँ

तिरी जुदाई का ग़म है न तेरे मिलने का
मैं अपनी आग में दिन रात जलता रहता हूँ

गए वो रोज़ कि तू बाइस-ए-क़रार थी जब
तिरी झलक से भी अब तो उदास होता हूँ

मिरे बग़ैर है मुमकिन कहाँ तिरी तकमील
मुझे पुकार कि मैं ही तिरा किनारा हूँ

कभी तो डूब सही शाम के समुंदर में
कि मैं सदा ही जवाहर निकाल लाया हूँ