घिर गया हूँ बे-तरह मैं ख़्वाहिशों के दरमियाँ
जिस्म के रेज़े उड़ाती आँधियों के दरमियाँ
कितने चेहरे कितनी शक्लें फिर भी तन्हाई वही
कौन ले आया मुझे इन आईनों के दरमियाँ
हम कहाँ यारो कहाँ वो मौजा-ए-बाद-ए-नसीम
वक़्त की पहनाइयाँ हाइल दिलों के दरमियाँ
दिल पे गुज़री जो वो गुज़री शहर क्यूँ वीराँ हुए
एक दहशत सी है फैली रास्तों के दरमियाँ
मुद्दआ पिन्हाँ पस-ए-अल्फ़ाज़ है जो पढ़ सको
कुछ नहीं पाओगे तुम इन सुर्ख़ियों के दरमियाँ
जैसे ख़ुश्बू शहर में सहरा में जैसे चाँदनी
यूँ बिखर जाता हूँ में तन्हाइयों के दरमियाँ
जिस की ख़ातिर शेर लिखते हो कभी पढ़ती भी है
कब तलक उलझे रहोगे क़ाफ़ियों के दरमियाँ
'शाम'-जी बिखरे कभी इस दिल के आँगन में महक
ज़िंदगी गुज़रेगी कब तक आहटों के दरमियाँ
ग़ज़ल
घिर गया हूँ बे-तरह मैं ख़्वाहिशों के दरमियाँ
महमूद शाम