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मह लक़ा चंदा शायरी | शाही शायरी

मह लक़ा चंदा शेर

13 शेर

ब-जुज़ हक़ के नहीं है ग़ैर से हरगिज़ तवक़्क़ो कुछ
मगर दुनिया के लोगों में मुझे है प्यार से मतलब

मह लक़ा चंदा




'चंदा' रहे परतव से तिरे या अली रौशन
ख़ुर्शीद को है दर से तिरे शाम-ओ-सहर फ़ैज़

मह लक़ा चंदा




दरेग़ चश्म-ए-करम से न रख कि ऐ ज़ालिम
करे है दिल को मिरे तेरी यक नज़र महज़ूज़

मह लक़ा चंदा




दिल हो गया है ग़म से तिरे दाग़दार ख़ूब
फूला है क्या ही जोश से ये लाला-ज़ार ख़ूब

मह लक़ा चंदा




गर मिरे दिल को चुराया नहीं तू ने ज़ालिम
खोल दे बंद हथेली को दिखा हाथों को

मह लक़ा चंदा




गरचे गुल की सेज हो तिस पर भी उड़ जाती है नींद
सर रखूँ क़दमों पे जब तेरे मुझे आती है नींद

मह लक़ा चंदा




गुल के होने की तवक़्क़ो पे जिए बैठी है
हर कली जान को मुट्ठी में लिए बैठी है

मह लक़ा चंदा




हम जो शब को ना-गहाँ उस शोख़ के पाले पड़े
दिल तो जाता ही रहा अब जान के लाले पड़े

मह लक़ा चंदा




कभी सय्याद का खटका है कभी ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ
बुलबुल अब जान हथेली पे लिए बैठी है

मह लक़ा चंदा