रखते हैं मेरे अश्क से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़
दामन में लिया अपने है दरिया ने गुहर फ़ैज़
पुर-नूर अजब क्या है करे मुझ को करम से
रखती है दो आलम पे तिरी एक नज़र फ़ैज़
इक जाम पे बख़्शे है यहाँ रुत्बा जिस्म को
किस की निगह-ए-मस्त से रखता है ख़ुमर फ़ैज़
महरूम नहीं कोई तिरे ख़्वान-ए-करम से
है हस्र ख़ुदाई का ही तुझ पे मगर फ़ैज़
'चंदा' रहे परतव से तिरे या अली रौशन
ख़ुर्शीद को है दर से तिरे शाम-ओ-सहर फ़ैज़
ग़ज़ल
रखते हैं मेरे अश्क से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़
मह लक़ा चंदा