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रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़ | शाही शायरी
rahe raqib se baham wo sim-bar mahzuz

ग़ज़ल

रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़

मह लक़ा चंदा

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रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़
हुआ न आह का अपने कभी असर महज़ूज़

दरेग़ चश्म-ए-करम से न रख कि ऐ ज़ालिम
करे है दिल को मिरे तेरी यक नज़र महज़ूज़

न बार बार हवस हो नबात की मुझ को
रखे जो एक ही बोसा में लब-ए-शकर महज़ूज़

तमाशा एक ख़ुदाई का हम दिखाते हैं
तो कीजिए बंदा-नवाज़ी हुए हो मगर महज़ूज़

यही दुआ है कि 'चंदा' का दिल अली वली
तेरे करम से रहे शाम और सहर महज़ूज़