रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़
हुआ न आह का अपने कभी असर महज़ूज़
दरेग़ चश्म-ए-करम से न रख कि ऐ ज़ालिम
करे है दिल को मिरे तेरी यक नज़र महज़ूज़
न बार बार हवस हो नबात की मुझ को
रखे जो एक ही बोसा में लब-ए-शकर महज़ूज़
तमाशा एक ख़ुदाई का हम दिखाते हैं
तो कीजिए बंदा-नवाज़ी हुए हो मगर महज़ूज़
यही दुआ है कि 'चंदा' का दिल अली वली
तेरे करम से रहे शाम और सहर महज़ूज़
ग़ज़ल
रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़
मह लक़ा चंदा