आली शेर हो या अफ़्साना या चाहत का ताना बाना
लुत्फ़ अधूरा रह जाता है पूरी बात बता देने से
जलील ’आली’
अपने दिए को चाँद बताने के वास्ते
बस्ती का हर चराग़ बुझाना पड़ा हमें
जलील ’आली’
दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से
कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से
जलील ’आली’
दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे
लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं
जलील ’आली’
दुनिया तो है दुनिया कि वो दुश्मन है सदा की
सौ बार तिरे इश्क़ में हम ख़ुद से लड़े हैं
जलील ’आली’
ग़ुरूर-ए-इश्क़ में इक इंकिसार-ए-फ़क़्र भी है
ख़मीदा-सर हैं वफ़ा को अलम बनाते हुए
जलील ’आली’
हम कि हैं नक़्श सर-ए-रेग-ए-रवाँ क्या जाने
कब कोई मौज-ए-हवा अपना निशाँ ले जाए
जलील ’आली’
इश्क़ ख़ुद सिखाता है सारी हिकमतें 'आली'
नक़्द-ए-दिल किसे देना बार-ए-सर कहाँ रखना
जलील ’आली’
जाँ खपाते हैं ग़म-ए-इश्क़ में ख़ुश ख़ुश 'आली'
कैसी लज़्ज़त का ये आज़ार बनाया हुआ है
जलील ’आली’