जब भी मौसम-ए-हुनर हर्फ़ ओ बयाँ ले जाए
यूँ लगे जिस्म से जैसे कोई जाँ ले जाए
हम कि हैं नक़्श सर-ए-रेग-ए-रवाँ क्या जाने
कब कोई मौज-ए-हवा अपना निशाँ ले जाए
एक आज़ादी कि ज़िंदानी-ए-ख़्वाहिश कर दे
इक असीरी कि कराँ-ता-ब-कराँ ले जाए
वहशत-ए-शौक़ मुक़द्दर थी सो बचते कब तक
अब तो ये सैल-ए-बला-ख़ेज़ जहाँ ले जाए
एक परछाईं के पीछे हैं अज़ल से 'आली'
ये तआक़ुब हमें क्या जाने कहाँ ले जाए
ग़ज़ल
जब भी मौसम-ए-हुनर हर्फ़ ओ बयाँ ले जाए
जलील ’आली’