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लुटते हैं बहुत सहल कि दिन ऐसे कड़े हैं | शाही शायरी
luTte hain bahut sahl ki din aise kaDe hain

ग़ज़ल

लुटते हैं बहुत सहल कि दिन ऐसे कड़े हैं

जलील ’आली’

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लुटते हैं बहुत सहल कि दिन ऐसे कड़े हैं
घर में नहीं जैसे कहीं जंगल में पड़े हैं

सर साँझ के कब हैं फ़क़त इक शोर-ए-अना है
चाहत के क़बीले नहीं ख़्वाहिश के धड़े हैं

किस रंग से तुम संग ज़माने के चले हो
हर नंग में नश्शे तुम्हें कुछ और चढ़े हैं

दिन रात हैं बे-महर हवाओं के हवाले
पत्तों की तरह जैसे दरख़्तों से झड़े हैं

दुनिया तो है दुनिया कि वो दुश्मन है सदा की
सौ बार तिरे इश्क़ में हम ख़ुद से लड़े हैं

यलग़ार करूँ क्या मिरे पिंदार के परचम
रस्ते में पहाड़ों की तरह आन खड़े हैं

इतने भी तही-दस्त तअल्लुक़ नहीं 'आली'
इस शहर में कुछ अपने भी मशरब के थड़े हैं