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अतहर नासिक शायरी | शाही शायरी

अतहर नासिक शेर

8 शेर

बनाना पड़ता है अपने बदन को छत अपनी
और अपने साए को दीवार करना पड़ता है

अतहर नासिक




कितने मअनी रखता है ज़रा ग़ौर तो कर
कूज़ा-गर के हाथ में होना मिट्टी का

अतहर नासिक




मैं पूछ लेता हूँ यारों से रत-जगों का सबब
मगर वो मुझ से मिरे ख़्वाब पूछ लेते हैं

अतहर नासिक




मैं उसे सुब्ह न जानूँ जो तिरे संग नहीं
मैं उसे शाम न मानूँ कि जो तेरे बिन है

अतहर नासिक




न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए
ख़ुद अपनी ज़ात से इंकार करना पड़ता है

अतहर नासिक




सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात
सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया

अतहर नासिक




यहीं कहीं पे अदू ने पड़ाव डाला था
यहीं कहीं पे मोहब्बत ने हार मानी थी

अतहर नासिक




यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ
मैं तेरे शहर में मेहमान कुछ दिनों का हूँ

अतहर नासिक