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यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ | शाही शायरी
yaqin barson ka imkan kuchh dinon ka hun

ग़ज़ल

यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ

अतहर नासिक

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यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ
मैं तेरे शहर में मेहमान कुछ दिनों का हूँ

फिर इस के बा'द मुझे हर्फ़ हर्फ़ होना है
तुम्हारे हाथ में दीवान कुछ दिनों का हूँ

किसी भी दिन इसे सर से उतार फेंकूँगा
मैं ख़ुद पे बोझ मिरी जान कुछ दिनों का हूँ

ज़मीन-ज़ादे मिरी उम्र का हिसाब न कर
उठा के देख ले मीज़ान कुछ दिनों का हूँ

मुझे ये दुख है कि हशरात-ए-ग़म तुम्हारे लिए
मैं ख़ुर्द-ओ-नोश का सामान कुछ दिनों का हूँ