मैं तुझे भूलना चाहूँ भी तो ना-मुम्किन है
तू मिरी पहली मोहब्बत है मिरा मोहसिन है
मैं उसे सुब्ह न जानूँ जो तिरे संग नहीं
मैं उसे शाम न मानूँ कि जो तेरे बिन है
कैसा मंज़र है तिरे हिज्र के पस-ए-मंज़र का
रेग-ए-सहरा है रवाँ और हवा साकिन है
तेरी आँखों से तिरे हाथों से लगता तो नहीं
मेरे अहबाब ये कहते हैं कि तो कमसिन है
अभी कुछ देर में हो जाएगा आँगन जल-थल
अभी आग़ाज़ है बारिश का अभी किन-मिन है
ऐन मुमकिन है कि कल वक़्त फ़क़त मेरा हो
आज मुट्ठी में ये आया हुआ पहला दिन है
आज का दिन तो बहुत ख़ैर से गुज़रा 'नासिक'
कल की क्यूँ फ़िक्र करूँ कल का ख़ुदा ज़ामिन है
ग़ज़ल
मैं तुझे भूलना चाहूँ भी तो ना-मुम्किन है
अतहर नासिक