अब अगर इश्क़ के आसार नहीं बदलेंगे 
हम भी पैराया-ए-इज़हार नहीं बदलेंगे
आग़ाज़ बरनी
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                ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की 
तेरे दामन में इक सहर होती
आग़ाज़ बरनी
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                मैं ख़ुद से छुपा लेकिन 
उस शख़्स पे उर्यां था
आग़ाज़ बरनी
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                मैं तो बस ये चाहता हूँ वस्ल भी 
दो दिलों के दरमियाँ हाएल न हो
आग़ाज़ बरनी
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                मिरे एहसास के आतिश-फ़िशाँ का 
अगर हो तो मिरे दिल तक धुआँ हो
आग़ाज़ बरनी
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                क़द का अंदाज़ा तुम्हें हो जाएगा 
अपने साए को घटा कर देखना
आग़ाज़ बरनी
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                उसे सुलझाऊँ कैसे 
मैं ख़ुद उलझा हुआ हूँ
आग़ाज़ बरनी
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                वो ख़्वाब जिस पे तीरा-शबी का गुमान था 
वो ख़्वाब आफ़्ताब की ताबीर हो गया
आग़ाज़ बरनी
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