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बे-हिसी इंसान का हासिल न हो | शाही शायरी
be-hisi insan ka hasil na ho

ग़ज़ल

बे-हिसी इंसान का हासिल न हो

आग़ाज़ बरनी

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बे-हिसी इंसान का हासिल न हो
दोस्ती हो रेत का साहिल न हो

मैं तो बस ये चाहता हूँ वस्ल भी
दो दिलों के दरमियाँ हाएल न हो

मुझ को तन्हा छोड़ने वाले बता
क्या करूँ जब दिल तिरी महफ़िल न हो

किस तरह मेरी ज़बाँ तक आएगा
हर्फ़ जो सच्चाई का हामिल न हो

ये ज़माना चाहता है आज भी
ख़ून-ए-दिल तहरीर में शामिल न हो

जिस तरफ़ ले जा रही है ज़िंदगी
उस तरफ़ भी कूचा-ए-क़ातिल न हो

आदमिय्यत के लिए ये शर्त है
आदमी कुछ हो मगर साइल न हो