EN اردو
वो नज़र मेहरबाँ अगर होती | शाही शायरी
wo nazar mehrban agar hoti

ग़ज़ल

वो नज़र मेहरबाँ अगर होती

आग़ाज़ बरनी

;

वो नज़र मेहरबाँ अगर होती
ज़िंदगी अपनी मो'तबर होती

नफ़रतों के तवील सहरा में
इन की चाहत तो हम-सफ़र होती

ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की
तेरे दामन में इक सहर होती

लम्हा लम्हा अज़िय्यतें हैं जहाँ
याद ही उन की चारा-गर होती

उन से मंसूब हो गए वर्ना
ज़िंदगी किस तरह बसर होती

हम ही 'आग़ाज़' गर्म-ए-सहरा थे
ज़ुल्फ़ क्या साया-ए-शजर होती