वो नज़र मेहरबाँ अगर होती
ज़िंदगी अपनी मो'तबर होती
नफ़रतों के तवील सहरा में
इन की चाहत तो हम-सफ़र होती
ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की
तेरे दामन में इक सहर होती
लम्हा लम्हा अज़िय्यतें हैं जहाँ
याद ही उन की चारा-गर होती
उन से मंसूब हो गए वर्ना
ज़िंदगी किस तरह बसर होती
हम ही 'आग़ाज़' गर्म-ए-सहरा थे
ज़ुल्फ़ क्या साया-ए-शजर होती
ग़ज़ल
वो नज़र मेहरबाँ अगर होती
आग़ाज़ बरनी