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मैं हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ | शाही शायरी
main harf-e-ibtida hun

ग़ज़ल

मैं हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ

आग़ाज़ बरनी

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मैं हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ
मुसलसल इक सदा हूँ

सहर की आरज़ू में
कहाँ तक आ गया हूँ

तख़य्युल हूँ उसी का
मैं जिस का नक़्श-ए-पा हूँ

ज़माना देखता है
मैं जिस को देखता हूँ

मुझे ये होश कब है
बुरा हूँ या भला हूँ

उसे सुलझाऊँ कैसे
मैं ख़ुद उलझा हुआ हूँ