मैं हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ
मुसलसल इक सदा हूँ
सहर की आरज़ू में
कहाँ तक आ गया हूँ
तख़य्युल हूँ उसी का
मैं जिस का नक़्श-ए-पा हूँ
ज़माना देखता है
मैं जिस को देखता हूँ
मुझे ये होश कब है
बुरा हूँ या भला हूँ
उसे सुलझाऊँ कैसे
मैं ख़ुद उलझा हुआ हूँ

ग़ज़ल
मैं हर्फ़-ए-इब्तिदा हूँ
आग़ाज़ बरनी