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अगर कुछ ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो | शाही शायरी
agar kuchh etibar-e-jism-o-jaan ho

ग़ज़ल

अगर कुछ ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो

आग़ाज़ बरनी

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अगर कुछ ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
अभी कुछ और मेरा इम्तिहाँ हो

मुझे दरपेश है बस एक मंज़िल
कि तुझ से बात हो लेकिन कहाँ हो

जिसे मौज-ए-बला चूमे मुसलसल
मिरी कश्ती का ऐसा बादबाँ हो

कहाँ तक सूरत-ए-इम्काँ निकालूँ
अगर हर बार मेहनत राएगाँ हो

मिरे ख़्वाबों की वो बे-नाम जन्नत
ज़मीन-ओ-आसमाँ के दरमियाँ हो

मिरे एहसास के आतिश-फ़िशाँ का
अगर हो तो मिरे दिल तक धुआँ हो

अगर 'आग़ाज़' है चुप-चाप साहिल
समुंदर की तरह तुम बे-कराँ हो