आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से
अब्दुर्रहीम नश्तर
अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग
अपनी परछाईं से टकराए हय्यूलों से मिले
अब्दुर्रहीम नश्तर
देख रहा था जाते जाते हसरत से
सोच रहा होगा मैं उस को रोकूँगा
अब्दुर्रहीम नश्तर
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
एक पत्थर ने रवाँ धार किया है मुझ को
अब्दुर्रहीम नश्तर
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
बुरा समझ ले मगर दूसरों से अच्छा हूँ
अब्दुर्रहीम नश्तर
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
मौजों की तरह चारों तरफ़ फैल गया हूँ
अब्दुर्रहीम नश्तर
फटे पुराने बदन से किसे ख़रीद सकूँ
सजे हैं काँच के पैकर बड़ी दुकानों में
अब्दुर्रहीम नश्तर
उस ने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
मेरे जज़्बों की प्याली में डाल दिया
अब्दुर्रहीम नश्तर
वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
किसे ख़बर कि वो दिन भर कहाँ रहा होगा
अब्दुर्रहीम नश्तर