टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
आज तो इस ने ही सरशार किया है मुझ को
वो महकता हुआ झोंका था कि नेज़े की अनी
छू के गुज़रा है तो ख़ूँ-बार किया है मुझ को
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
एक पत्थर ने रवाँ धार किया है मुझ को
मुझ से अब उस का तड़पना नहीं देखा जाता
जिस ने चलती हुई तलवार किया है मुझ को
मैं बुलंदी से उसे देख रहा हूँ 'नश्तर'
जिस ने पस्ती का गुनहगार किया है मुझ को
ग़ज़ल
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
अब्दुर्रहीम नश्तर