मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
बुरा समझ ले मगर दूसरों से अच्छा हूँ
मैं अपने आप को जचता हूँ बे-हिसाब मगर
न जाने तेरी निगाहों मैं कैसा लगता हों
बिछा रहा हूँ कई जाल इर्द-गर्द तिरे
तुझे जकड़ने की ख़्वाहिश में कब से बैठा हों
तू बर्फ़ है तो पिघल जाएगा तमाज़त से
तू आग है तो मैं झोंका तुझे हवा का हूँ
बिखर भी जाए तो मुझ से न बच सकेगा कभी
तुझे समेट के लफ़्ज़ों में बाँध सकता हों
मैं यूँ भी हूँ मुझे मालूम ही न था 'नश्तर'
समझ रहा था बहुत नेक हूँ फ़रिश्ता हूँ
ग़ज़ल
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
अब्दुर्रहीम नश्तर