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Zulf शायरी | शाही शायरी

Zulf

58 शेर

कुछ अब के हम भी कहें उस की दास्तान-ए-विसाल
मगर वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ खुले तो बात चले

अज़ीज़ हामिद मदनी




दुनिया की रविश देखी तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता में
बनती है ये मुश्किल से बिगड़ती है ज़रा में

अज़ीज़ हैदराबादी




फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

बशीर बद्र




रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं

भारतेंदु हरिश्चंद्र




ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना

एहसान दानिश




मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए

फ़ानी बदायुनी




सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह
तेरे धोके में किसी और के शाने लग जाएँ

फ़रहत एहसास