या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए
जब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ सँवर न जाए
वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए
वो जल्वा क्या जो दीदा ओ दिल में उतर न जाए
मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए
मैं आज गुलसिताँ में बुला लूँ बहार को
लेकिन ये चाहता हूँ ख़िज़ाँ रूठ कर न जाए
पैदा हुए हैं अब तो मसीहा नए नए
बीमार अपनी मौत से पहले ही मर न जाए
कर ली है तौबा इस लिए वाइज़ के सामने
इल्ज़ाम-ए-तिश्नगी मिरे साक़ी के सर न जाए
साक़ी पिला शराब मगर ये रहे ख़याल
आलाम-ए-रोज़गार का चेहरा उतर न जाए
मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए
तर्क-ए-तअल्लुक़ात का एहसास मर न जाए
मसरूर-ए-दीद-ए-हुस्न है इस वास्ते 'फ़ना'
दुनिया के ऐब पर कभी मेरी नज़र न जाए
ग़ज़ल
या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए
फ़ना निज़ामी कानपुरी