'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
चले हो चाँदनी शब में उन्हें बुलाने को
क़मर जलालवी
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अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है
उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते
राहत इंदौरी
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जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
किसी की आँख में आँसू किसी के दामन में
सालिक लखनवी
हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
देखे हैं बहुत हम ने हंगामे मोहब्बत के
आग़ाज़ भी रुस्वाई अंजाम भी रुस्वाई
सूफ़ी तबस्सुम