अँधेरी रात को मैं रोज़-ए-इश्क़ समझा था
चराग़ तू ने जलाया तो दिल बुझा मेरा
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप
और ये रात अपनी चादर है
आबिद वदूद
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का
अहमद फ़राज़
चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
मुझ से अच्छे तो शब-ए-ग़म के मुक़द्दर निकले
अहमद मुश्ताक़
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ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
उसे ढूँडें कि उस को भूल जाएँ
अहमद मुश्ताक़
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आज की रात भी तन्हा ही कटी
आज के दिन भी अंधेरा होगा
अहमद नदीम क़ासमी
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
अख़्तर शीरानी
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