तू कभी इस शहर से हो कर गुज़र
रास्तों के जाल में उलझा हूँ मैं
आशुफ़्ता चंगेज़ी
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जहाँ तक पाँव मेरे जा सके हैं
वहीं तक रास्ता ठहरा हुआ है
अब्दुस्समद ’तपिश’
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कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
मिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
अदीम हाशमी
क्यूँ चलते चलते रुक गए वीरान रास्तो
तन्हा हूँ आज मैं ज़रा घर तक तो साथ दो
आदिल मंसूरी
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जो रुकावट थी हमारी राह की
रास्ता निकला उसी दीवार से
अज़हर अब्बास
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वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ
सो अब फिर इक सफ़र का सिलसिला करना पड़ेगा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
हम आप को देखते थे पहले
अब आप की राह देखते हैं
कैफ़ी हैदराबादी
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