तमाम उम्र की तन्हाई की सज़ा दे कर
तड़प उठा मिरा मुंसिफ़ भी फ़ैसला दे कर
मैं अब मरूँ कि जियूँ मुझ को ये ख़ुशी है बहुत
उसे सुकूँ तो मिला मुझ को बद-दुआ' दे कर
मैं उस के वास्ते सूरज तलाश करता हूँ
जो सो गया मिरी आँखों को रत-जगा दे कर
वो रात रात का मेहमाँ तो उम्र भर के लिए
चला गया मुझे यादों का सिलसिला दे कर
जो वा किया भी दरीचा तो आज मौसम ने
पहाड़ ढाँप दिया अब्र की रिदा दे कर
कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
मिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
चटख़ चटख़ के जली शाख़ शाख़ जंगल की
बहुत शरार मिला आग को हवा दे कर
फिर इस के बा'द पहाड़ उस को ख़ुद पुकारेंगे
तू लौट आ उसे वादी में इक सदा दे कर
सुतून-ए-रेग न ठहरा 'अदीम' छत के तले
मैं ढह गया हूँ ख़ुद अपने को आसरा दे कर
ग़ज़ल
तमाम उम्र की तन्हाई की सज़ा दे कर
अदीम हाशमी