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प्रेरक शायरी | शाही शायरी

प्रेरक

112 शेर

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी




सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले

मजरूह सुल्तानपुरी




हयात ले के चलो काएनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो

मख़दूम मुहिउद्दीन




यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है

मंज़ूर हाशमी




बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो

मीर तक़ी मीर




शह-ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले

मिर्ज़ा अज़ीम बेग 'अज़ीम'




ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं

मुईन अहसन जज़्बी