ज़िंदगी नाम है इक जोहद-ए-मुसलसल का 'फ़ना'
राह-रौ और भी थक जाता है आराम के बा'द
फ़ना निज़ामी कानपुरी
हर मुसीबत का दिया एक तबस्सुम से जवाब
इस तरह गर्दिश-ए-दौराँ को रुलाया मैं ने
फ़ानी बदायुनी
मौजों की सियासत से मायूस न हो 'फ़ानी'
गिर्दाब की हर तह में साहिल नज़र आता है
फ़ानी बदायुनी
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा
फ़ारूक़ बाँसपारी
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
सराब ओ आब में पोशीदा क़ुर्बतें क्या क्या
फ़ुज़ैल जाफ़री
कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
ग़म में शामिल ख़ुशी सी रहती है
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है
जो थक कर बैठ जाते हैं वो मंज़िल पा नहीं सकते
हफ़ीज़ बनारसी