EN اردو
हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं | शाही शायरी
hum dahr ke is virane mein jo kuchh bhi nazara karte hain

ग़ज़ल

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं

मुईन अहसन जज़्बी

;

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बाँ में कहते हैं आहों में इशारा करते हैं

क्या तुझ को पता क्या तुझ को ख़बर दिन रात ख़यालों में अपने
ऐ काकुल-ए-गीती हम तुझ को जिस तरह सँवारा करते हैं

ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं

क्या जानिए कब ये पाप कटे क्या जानिए वो दिन कब आए
जिस दिन के लिए हम ऐ 'जज़्बी' क्या कुछ न गवारा करते हैं