हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बाँ में कहते हैं आहों में इशारा करते हैं
क्या तुझ को पता क्या तुझ को ख़बर दिन रात ख़यालों में अपने
ऐ काकुल-ए-गीती हम तुझ को जिस तरह सँवारा करते हैं
ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं
क्या जानिए कब ये पाप कटे क्या जानिए वो दिन कब आए
जिस दिन के लिए हम ऐ 'जज़्बी' क्या कुछ न गवारा करते हैं
ग़ज़ल
हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
मुईन अहसन जज़्बी