यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है
सफ़र में अब के ये तुम थे कि ख़ुश-गुमानी थी
यही लगा कि कोई साथ साथ चलता है
ग़िलाफ़-ए-गुल में कभी चाँदनी के पर्दे में
सुना है भेस बदल कर भी वो निकलता है
लिखूँ वो नाम तो काग़ज़ पे फूल खिलते हैं
करूँ ख़याल तो पैकर किसी का ढलता है
रवाँ-दवाँ है उधर ही तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
वो ख़ुश-ख़िराम जिधर सैर को निकलता है
उम्मीद ओ यास की रुत आती जाती रहती है
मगर यक़ीन का मौसम नहीं बदलता है
ग़ज़ल
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
मंज़ूर हाशमी