हम आए रोज़ नया ख़्वाब देखते हैं मगर
ये लोग वो नहीं जो ख़्वाब से बहल जाएँ
अख़्तर रज़ा सलीमी
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इक आग हमारी मुंतज़िर है
इक आग से हम निकल रहे हैं
अख़्तर रज़ा सलीमी
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जिस्मों से निकल रहे हैं साए
और रौशनी को निगल रहे हैं
अख़्तर रज़ा सलीमी
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ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और
लोग अपने घरों में सोए थे
अख़्तर रज़ा सलीमी
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पहले तराशा काँच से उस ने मिरा वजूद
फिर शहर भर के हाथ में पत्थर थमा दिए
अख़्तर रज़ा सलीमी
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सुना गया है यहाँ शहर बस रहा था कोई
कहा गया है यहाँ पर मकान होते थे
अख़्तर रज़ा सलीमी
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तुझे ख़बर नहीं इस बात की अभी शायद
कि तेरा हो तो गया हूँ मगर मैं हूँ उस का
अख़्तर रज़ा सलीमी
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