एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ुल्म ऐसा ही किया तू ने ऐ सय्याद कि बस
ताबाँ अब्दुल हई
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ुल्म ऐसा ही किया तू ने ऐ सय्याद कि बस
ताबाँ अब्दुल हई
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
रश्क से टुकड़े हुआ है हज्र-ए-अस्वद भी
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के
ताबाँ अब्दुल हई
है क्या सबब कि यार न आया ख़बर के तईं
शायद किसी ने हाल हमारा कहा नहीं
ताबाँ अब्दुल हई
हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
कब इस ख़ूबी से ऐ ज़ाहिद तिरा बैत-ए-हरम होगा
ताबाँ अब्दुल हई