तअ'ल्लुक़ तोड़ कर उस की गली से
कभी मैं जुड़ न पाया ज़िंदगी से
सिराज फ़ैसल ख़ान
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तिरे एहसास में डूबा हुआ मैं
कभी सहरा कभी दरिया हुआ मैं
सिराज फ़ैसल ख़ान
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तिरे एहसास में डूबा हुआ मैं
कभी सहरा कभी दरिया हुआ मैं
सिराज फ़ैसल ख़ान
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तिरी हयात से जुड़ जाऊँ वाक़िआ' बन कर
तिरी किताब में मेरा भी इक़्तिबास रहे
सिराज फ़ैसल ख़ान
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तुम उस को बुलंदी से गिराने में लगे हो
तुम उस को निगाहों से गिरा क्यूँ नहीं देते
सिराज फ़ैसल ख़ान
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तू जा रहा था बिछड़ के तो हर क़दम पे तिरे
फिसल रही थी मिरे पाँव से ज़मीन बहुत
सिराज फ़ैसल ख़ान
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उस के दिल की आग ठंडी पड़ गई
मुझ को शोहरत मिल गई इल्ज़ाम से
सिराज फ़ैसल ख़ान
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