किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
जो दीदा-वर है तिलिस्म-ए-नज़र से निकलेगा
अकबर हमीदी
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कितना मान गुमान है देने वाले को
दर्द दिया है और मुदावा रोक लिया
अकबर हमीदी
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कोई नादीदा उँगली उठ रही है
मिरी जानिब इशारा हो रहा है
अकबर हमीदी
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लिबास में है वो तर्ज़-ए-तपाक-ए-आराइश
जो अंग चाहे छुपाना झलक झलक जाए
अकबर हमीदी
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नफ़स नफ़स हो सबा की तरह बहार-अंगेज़
उफ़ुक़ उफ़ुक़ गुल-ए-हस्ती महक महक जाए
अकबर हमीदी
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रात दिन फिर रहा हूँ गलियों में
मेरा इक शख़्स खो गया है यहाँ
अकबर हमीदी
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वो भी दिन था कि तिरे आने का पैग़ाम आया
तब मिरे घर में क़दम बाद-ए-सबा ने रक्खा
अकबर हमीदी
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