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हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए | शाही शायरी
hansi mein saghar-e-zarrin khanak khanak jae

ग़ज़ल

हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए

अकबर हमीदी

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हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
शबाब उस की सदा का छलक छलक जाए

दिल-ओ-नज़र में बसी है वो चाँद सी सूरत
वो दिल-कशी है कि बालक हुमक हुमक जाए

लिबास में है वो तर्ज़-ए-तपाक-ए-आराइश
जो अंग चाहे छुपाना झलक झलक जाए

क़दम क़दम तिरी रानाइयों के दर वा हों
रविश रविश तिरा आँचल ढलक ढलक जाए

नफ़स नफ़स हो सबा की तरह बहार-अंगेज़
उफ़ुक़ उफ़ुक़ गुल-ए-हस्ती महक महक जाए

नशात-ए-क़ुर्ब के लम्हों में उस की अंगड़ाई
उभर के ख़ाक-ए-बदन से धनक धनक जाए

बक़ा के राज़ हैं सब उस पे मुन्कशिफ़ 'अकबर'
वो शाख़-ए-सब्ज़ हवा से लचक लचक जाए