इश्क़ की सादा-दिली है हर तरफ़ छाई हुई
बारगाह-ए-हुस्न में हर आरज़ू नौ-ख़ेज़ है
अकबर हैदरी
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जब्र सहता हूँ मगर कब तक सहूँ इंसान हूँ
सब्र करता हूँ मगर दिल सब्र के क़ाबिल नहीं
अकबर हैदरी
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सब्र करती ही रही बे-चारगी
ज़ुल्म होता ही रहा मज़लूम पर
अकबर हैदरी
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ज़िंदगी है चश्म-ए-इबरत में अभी
कुछ नहीं तो ऐश-ओ-इशरत ही सही
अकबर हैदरी
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अभी ज़मीन को हफ़्त आसमाँ बनाना है
इसी जहाँ को मुझे दो-जहाँ बनाना है
अकबर हमीदी
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ऐसे हालात में इक रोज़ न जी सकते थे
हम को ज़िंदा तिरे पैमान-ए-वफ़ा ने रक्खा
अकबर हमीदी
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फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश
मैं हूँ कि हर इक ज़ख़्म छुपाने में लगा हूँ
अकबर हमीदी
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