कभी ख़ुशबू कभी साया कभी पैकर बन कर
सभी हिज्रों में विसालों में मिरे पास रहो
अकबर अली खान अर्शी जादह
लाओ इक लम्हे को अपने-आप में डूब के देख आऊँ
ख़ुद मुझ में ही मेरा ख़ुदा हो ये भी तो हो सकता है
अकबर अली खान अर्शी जादह
लूटा जो उस ने मुझ को तो आबाद भी किया
इक शख़्स रहज़नी में भी रहबर लगा मुझे
अकबर अली खान अर्शी जादह
मैं तुझ को भूल न पाऊँ यही सज़ा है मिरी
मैं अपने-आप से लेता हूँ इंतिक़ाम अपना
अकबर अली खान अर्शी जादह
मेरे तसव्वुर ने बख़्शी है तन्हाई को भी इक महफ़िल
तू महफ़िल महफ़िल तन्हा हो ये भी तो हो सकता है
अकबर अली खान अर्शी जादह
सर-ए-ख़ार से सर-ए-संग से जो है मेरा जिस्म लहू लहू
कभी तू भी तो मिरे संग-ए-मील कभी रंग मेरे सफ़र के देख
अकबर अली खान अर्शी जादह
सुराही-ए-मय-ए-नाब-ओ-सफीना-हा-ए-ग़ज़ल
ये हर्फ़-ए-हुस्न-ए-मुक़द्दर लिखा है किस के लिए
अकबर अली खान अर्शी जादह