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कभी ज़ख़्म ज़ख़्म निखर के देख कभी दाग़ दाग़ सँवर के देख | शाही शायरी
kabhi zaKHm zaKHm nikhar ke dekh kabhi dagh dagh sanwar ke dekh

ग़ज़ल

कभी ज़ख़्म ज़ख़्म निखर के देख कभी दाग़ दाग़ सँवर के देख

अकबर अली खान अर्शी जादह

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कभी ज़ख़्म ज़ख़्म निखर के देख कभी दाग़ दाग़ सँवर के देख
कभी तू भी टूट मिरी तरह कभी रेज़ा रेज़ा बिखर के देख

सर-ए-ख़ार से सर-ए-संग से जो है मेरा जिस्म लहू लहू
कभी तू भी तो मिरे संग-ए-मील कभी रंग मेरे सफ़र के देख

इसी खेल से कभी पाएगा तू गुदाज़-ए-क़ल्ब की ने'मतें
कभी रूठ जा कभी मन के देख कभी जीत जा कभी हर के देख

ये पड़ी हैं सदियों से किस लिए तिरे मेरे बीच जुदाइयाँ
कभी अपने घर तू मुझे बुला कभी रास्ते मिरे घर के देख

तुझे आईने में न मिल सकेगा तिरी अदाओं का बाँकपन
अगर अपना हुस्न है देखना तो मिरी ग़ज़ल में उतर के देख

वही मेरा दर्द रवाँ-दवाँ वही तेरा हुस्न जवाँ जवाँ
कभी 'मीर'-ओ-'दर्द' के बैत पढ़ कभी शे'र 'दाग़'-ओ-'जिगर' के देख