तेरा ख़याल जाँ के बराबर लगा मुझे
तू मेरी ज़िंदगी है ये अक्सर लगा मुझे
दरिया तिरे जमाल के हैं कितने इस में गुम
सोचा तो अपना दिल भी समुंदर लगा मुझे
लूटा जो उस ने मुझ को तो आबाद भी किया
इक शख़्स रहज़नी में भी रहबर लगा मुझे
क्या बात थी कि क़िस्सा-ए-फ़रहाद-ए-कोहकन
अपनी ही दास्तान-ए-सरासर लगा मुझे
आमद ने तेरी कर दिया आबाद इस तरह
ख़ुद अपना पहली बार मिरा घर लगा मुझे
आया है कौन मेरी अयादत के वास्ते
क्यूँ अपना हाल पहले से बेहतर लगा मुझे
क्या याद आ गया मुझे क्यूँ याद आ गया
ग़ुंचा खिला जो शाख़ पे पत्थर लगा मुझे

ग़ज़ल
तेरा ख़याल जाँ के बराबर लगा मुझे
अकबर अली खान अर्शी जादह