वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी
फिरती हैं वो शक्लें जिन्हें देखा नहीं होता
अहमद मुश्ताक़
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया
अहमद मुश्ताक़
यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है
जैसे काटी हों तिरे हिज्र की रातें कहीं और
अहमद मुश्ताक़
ये पानी ख़ामुशी से बह रहा है
इसे देखें कि इस में डूब जाएँ
अहमद मुश्ताक़
ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
उसे ढूँडें कि उस को भूल जाएँ
अहमद मुश्ताक़
ये वो मौसम है जिस में कोई पत्ता भी नहीं हिलता
दिल-ए-तन्हा उठाता है सऊबत शाम-ए-हिज्राँ की
अहमद मुश्ताक़
आग़ोश में महकोगे दिखाई नहीं दोगे
तुम निकहत-ए-गुलज़ार हो हम पर्दा-ए-शब हैं
अहमद नदीम क़ासमी