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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है
कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी

अहमद फ़राज़




वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

अहमद फ़राज़




वो सामने हैं मगर तिश्नगी नहीं जाती
ये क्या सितम है कि दरिया सराब जैसा है

अहमद फ़राज़




वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर
गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए

अहमद फ़राज़




याद आई है तो फिर टूट के याद आई है
कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त

अहमद फ़राज़




ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है
यही धुआँ मिरे दीवार ओ दर से निकला था

अहमद फ़राज़




ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है

अहमद फ़राज़