गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है
सो शक का फ़ाएदा उस की नज़र को जाता है
हदें वफ़ा की भी आख़िर हवस से मिलती हैं
ये रास्ता भी इधर से उधर को जाता है
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है
ये हाल है कि कई रास्ते हैं पेश-ए-नज़र
मगर ख़याल तिरी रह-गुज़र को जाता है
तू 'अनवरी' है न 'ग़ालिब' तो फिर ये क्यूँ है 'फ़राज़'
हर एक सैल-ए-बला तेरे घर को जाता है
ग़ज़ल
गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है
अहमद फ़राज़