ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह
किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता
अहमद फ़राज़
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
अहमद फ़राज़
ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ
अहमद फ़राज़
अपना साया तो मैं दरिया में बहा आया था
कौन फिर भाग रहा है मिरे पीछे पीछे
अहमद फ़रीद
सामने फिर मिरे अपने हैं सो मैं जानता हूँ
जीत भी जाऊँ तो ये जंग मैं हारा हुआ हूँ
अहमद फ़रीद
सब पे खुलने की हमें ही आरज़ू शायद न थी
एक दो होंगे कि हम जिन पर फ़क़ीराना खुले
अहमद फ़रीद
ज़ख़्म गिनता हूँ शब-ए-हिज्र में और सोचता हूँ
मैं तो अपना भी न था कैसे तुम्हारा हुआ हूँ
अहमद फ़रीद