अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था
ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है
यही धुआँ मिरे दीवार-ओ-दर से निकला था
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था
ये अब जो सर हैं ख़मीदा कुलाह की ख़ातिर
ये ऐब भी तो हम अहल-ए-हुनर से निकला था
वो क़ैस अब जिसे मजनूँ पुकारते हैं 'फ़राज़'
तिरी तरह कोई दीवाना घर से निकला था
ग़ज़ल
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था
अहमद फ़राज़